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शेखर : एक जीवनी (भाग 2)

वार्डर ने कहा, “बाबू साहब आप यहाँ हैं, मैं तो-”

शेखर ने अनसुनी करके कहा, “अभी दूसरी बात तो रह ही गयी। खैर, बाकी फिर किसी दिन सुनूँगा।”

वार्डर ने अपनी बात समाप्त की, “मैं तो खोजता-खोजता हैरान हो गया। अब चलिए न।”

शेखर चल पड़ा।

बाहर वार्डर ने पूछा, “बाबा आपको अपने झगड़े की बात सुना रहे थे क्या?”

“क्यों?”

“वही सबको सुनाया करते हैं। पहले साहब से झगड़ा हो गया था। साहब की नाकों दम कर दिया बुड्ढे ने।”

“हूँ।”

वार्डर ने मानो पुरानी बातें याद करते-करते कहा, “बुड्ढा कभी तूफ़ान ही रहा होगा। पर है बिचारा बड़ा सन्त आदमी-तबीयत का बिलकुल ग़रीब है।”

“हूँ।”

शेखर बन्द हो गया। वार्डर ताला बन्द करके खड़काकर चला, तो शेखर धीरे से हँस दिया-एक मीठी हँसी!

जो आदमी जीवन द्वारा जीने का आदी है, उसे यह असह्य है कि उसे जीवन के बचे-खुचे बासी टुकड़े ही मिलें, जीवन की उच्छिष्ट मिले-किन्तु बन्दी शेखर के लिए यही विधान हो गया था...यह विचार ही उसको असह्य था, पर आता था वह बार-बार, और हर बार मानो उसको बाँधनेवाले लोहे के किवाड़ों का एक सीखचा उसकी अन्तर्ज्वाला से ही तप्त होकर उसके हृदय में घुस जाता था...?

बाहर के संसार से-शशि से-उसका एक सम्बन्ध रह गया था निर्जीव कागज़ के पन्ने, उस पर निर्जीव लिपि के अक्षर...भाषा सजीव होती है, दर्द सजीव होता है, पर क्या उनके प्राण इस ज्ञान के आगे टिक सकते हैं कि आज जो उसके सामने है, उसमें जीवन का स्पन्दन तीन दिन, या सात दिन, या दस दिन पहले था?...


शेखर को शशि का पत्र मिला, तो ऊपर तारीख देखकर उसे अनुमान नहीं हुआ कि चिट्ठी उस तक पहुँचने में जो नौ दिन दिन लग गये हैं, वे उसके जीवन-प्रवाह के एक युग का अधिकांश एक ही घूँट से पी गये हैं। वह बढ़ती हुई वेदना से सारा पत्र एक बार पढ़ गया, फिर दूसरी बार पढ़ गया-हाँ, वेदना बहुत थी, वेदना बहुत थी, पर इतनी नहीं कि वह फूट जाए, निर्वेद हो जाए-वह पीछे आयी जब बायाँ हाथ उठाकर उसने तारीखें गिनना शुरू किया और जाना चौदह में से नौ जाएँ तो पाँच बचते हैं...


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